Saturday, March 14, 2009

लिखने के लिये कोई सबजेक्ट चाहिये...भांड़ में जाये सबजेक्ट

क से कबूतर, ख से खरगोश, ग से गधा, घ से घड़ी...ए से एपल, बी से ब्याय, सी से कैट...बहुत दिनों से कुछ न लिख पाने की छटपटाहट है...लिखने के लिये कोई सबजेक्ट चाहिये...भांड़ में जाये सबजेक्ट...आज बिना सबजेक्ट का ही लिखूंगा...ये भी कोई बात हुई लिखने के लिए सबजेक्ट तय करो...ब्लौग ने सबजेक्ट और संपादक को कूड़े के ढेर में फेंक दिया है...जो मन करे लिखो...कोई रोकने वाला नहीं है।अभी मैं एक माल के एसी कमरे में बैठा हूं, और एक मराठी महिला सामने की गैलरी में झाड़ू लगा रही है और किसी मराठी मानुष के साथ गिटर पिटर भी कर रही है। मुंबई में मराठी महिलाओं की मेहनत को देखकर मैं दंग रह जाता हूं...जीतोड़ मेहनत करने के बावजूद उनके चेहरे में शिकन तक नहीं होती...मुंबई के अधिकांश दफ्तरों में आफिस के रूप में मराठी मानुष ही मिलते हैं। दसवी से ज्यादा कोई शायद ही पढ़ा हो...लेकिन ये मेहनती और इमानदार होते हैं...इसके बावजूद ये नीचले पायदन पर हैं...किताबों में इनका मन नहीं लगता है...अब न लगे अपनी बला से...आज का नवभारत टाइम्स मेरे डेस्क पर पड़ा हुआ है, हेडिंग है भारत ने दिया पाकिस्तान को जवाब...दबाव में झुके जरदारी...खत्म हुई रार, बीजेपी शिव सेना युति बरकरार...यहां के अखबारों पर चुनावी रंग चढ़ रहा है...अभी कुछ देर पहले एक फिल्म की एक स्क्रीप्ट पर काम कर रहा था...35 सीन लिख चुका हूं...दिमाग थोड़ा थका हुआ है...उटपटांग तरह से लिखकर अपने आप को तरोताजा करने की कोशिश कर रहा हूं...आजकल मनोज वाजपेयी ने दारू पीनी छोड़ दी है...अभी कुछ देर पहले ब्लागवानी का चक्कर काट रहा था...बस हेड लाइन पर नजर दौड़ाते हुये आगे भागता गया...नई दुनिया पर आलोक तोमर के आलेख को पढ़ने पर मजबूर हो गया...इसे दो अन्य ब्लाग पर भी चिपकाया गया है...शराब और पत्रकारिता में क्या संबंध है?...कुछ भी हो मेरी बला से....वैसे पत्रकारिता में था तो मैं भी खूब पीता था...मेरा पसंदीदा च्वाइस था वोदका...आज भी मौका मिलने पर गटक ही लेता हूं...वोदका गटकने के बाद डायलोगबाजी करने में मजा आता है...मेरा डायरेक्टर भी वोदकाबाज है...अक्सर मुझे अपने साथ बैठा ही लेता है...और फिर बोलशेविक क्रांति से लेकर हिटलर तक की मां बहन एक करने लगता है...उसे सुनने में मजा आता है....दुनिया में बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें सुनने में मजा आता है...कैप्टन आर एन सिंह की याद आ रही है...धूत होकर पीते थे...और अपनी बनारसी लूंगी पर उन्हे बहुत नाज था...ठीक वैसे ही जैसे मेरे दादा को अपने पीतल के लोटे पर...बहुत पहले गोर्की की एक कहानी पढ़ी थी...जिसमें उसने यह सवाल उठाया था कि आदमी लिखता क्यों हैं..?.या फिर उसे क्यों लिखना चाहिये...?आज तक इसका कोई सटीक जवाब नहीं मिला....किसी के पास कोई जवाब हो तो जरूर दे....जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही हर लड़की कविता क्यों लिखती है..?..कालेज के दिनों में पढ़ने की आदत सी बन गई थी...लिखने की शैली देखकर बता सकता था कि इसे किस लेखक ने लिखा है...लेडी चैटरली और अन्ना करेनिना मेरे प्रिय करेक्टर थे....युद्ध और शांति की नताशा का भी मैं दीवाना था...जवान होते ही प्यार अंद्रेई बोलोकोन्सकी से करती है, भागने की तैयारी किसी और के साथ करती है और शादी प्येर से करती है....प्येर भी अजीब इनसान था भाई...युद्ध को देखने का शौक था...वाह क्या बात हुई...बुढ़ा होने के बाद तोलस्तोव की कलाम जवान हो गई थी...वैसे वह शुरु से ही अच्छा लिखता था....एक किताब पढ़ी थी पिता और पुत्र...राइटर का नाम भूल रहा हूं....लोग भूलते क्यों है...शायद दिमाग के डेस्कटाप में सारी बातें नहीं रह सकती...वैसे मनोविज्ञान में भूलने पर बहुत कुछ लिखा गया है...खैर पिता और पुत्र का निहिलिस्ट नायक लाजवाब था...डाक्टरी की पढ़ाई पढ़ रहा था....उसकी मौत कितनी खतरनाक है...अच्छी चीज पढ़े बहुत दिन हो गये...वक्त ही नहीं मिलती...अब लगता है कुछ फ्रेश हो गया हूं...आदमी अपने दिमाग का अधिक से अधिक कितना इस्तेमाल कर सकता है...पता नहीं...एक बार अखाबर की दुनिया में काम करते हुये मैंने अपने अधिकारी से पछा था...कौवा काले ही क्यों होते हैं...?अपने सिर को डेस्क पर पटकते हुये उसने कहा था...मुझे क्या पता...दिमाग के थक जाने के बाद अक्सर में यूं ही सोचा करता हूं...बे सिर पैर की बात...क्या वाकई गधों के पास दिमाग नहीं होता...? गैलिलियों को क्या जरूरत थी ग्रह और नक्षत्रों की गति के बारे में पता लगाने की....? खाता पिता मस्त रहता...पोप की दुकान चलती रहती...मार्टिन लूथर ने भी पोप की सत्ता को ललकारा था...दोनों ठरकी थे....और नही तो क्या...? न दूसरों को चैन से बैठने दिये और न खुद चैन से बैठे...मारकाट फैला दिया...वैसे गलती उनकी नहीं थी...लोग सहनशील नहीं होते...अरे कोई आलोचना कर रहा है तो करने दो...दे धबकनिया की क्या जरूरत है...? मुंबई में कठमुल्ले लाउडस्पीकर पर गलाफाड़ फाड़ के अल्लाह को पुकारते हैं...देर रात तक काम करने के बाद आपकी आंख लगी नहीं कि ...बस हो गया...भाई ये भी कोई बात है...ठीक से न सोने की वजह से यहां के अधिकतर लोगों की आंखें दिन भर लाल रहती है...अब गाना गाने का मन कर रहा है...रातकली एक ख्वाब में आई...सुबह गले का हार हुई...सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे...जाड़ा में बलमा प्यारा लगे...पुरानी गानों की बात कुछ और थी...मिलती है जिंदगी में मोहब्बत कभी-कभी ...छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा...अब टाईम हो गया है...जा रहा हूं बाहर की ताजी वहा खाने...जाते जाते....गणेश जी चूहा पर कैसे बैठते होंगे ?

4 comments:

try1761 said...

ऐ सी कमरा देखा है कभी ?, मुझे मालूम है की जब आपने यह ब्लॉग बनाया और यह टाइटल लिखा तो तब आप कहा थे, पतरकारिता करते है और असत्य बोलते है राम राम राम | , सर पर पंखा तो है नहीं आपके.और बात करते है ऐ सी और माल की

Neeraj Sharma said...

शंकर जी वाकई मज़ा आ गया| आपने ये जहाँ कहीं भी बैठ के लिखा हो,लिखा बड़ा ही दिलचस्प है | दिल खुश हो गया |

Hari Shanker Rarhi said...

Bhai Alok Nandanji,
I did not know before today that you have created a new blog.Overall it is good to see you here too. But, I would like to see you on iyatta at least some times.

चंदन कुमार मिश्र said...

ये ट्राई1761 महाराज क्या कह रहे हैं? वैसे मुझे तो बढिया लेख लगा…

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